उत्तराखंड के बहुत से गांव से पलायन के क्या कारण है. पढ़िए पूरी खबर.

VSCHAUHAN KI REPORT

उत्तराखंड प्रदेश बनने के बाद से लगातार गढ़वाल के विभिन्न गांव से पलायन जारी है. इसके कई कारण हो सकते हैं वहां के गांव में सुविधाओं का अभाव महसूस करना. बेमौसम की बारिश से खेती में नुकसान होना और रोजगार की तलाश में दूसरे प्रदेशों के शहरो में जाना.

खेती और जलवायु परिवर्तन

जीबी पंत कृषि एवं तकनीकी विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ तेज़ प्रताप कहते हैं. “अब हम उस दौर में पहुँच गए हैं, जहां खेती पर जलवायु परिवर्तन का असर बिलकुल स्पष्ट दिखाई दे रहा है. पहले ये कहा जाता था कि ग्लोबल वॉर्मिंग होगी तो जो फ़सलें जहाँ उगती हैं, उससे अधिक ऊंचाई पर शिफ़्ट हो जाएंगी. मौसम हमें बता रहा है कि तापमान बढ़ने के साथ बारिश और बर्फ़बारी का पैटर्न भी बदल गया है.”

“इस साल मई में गर्मियों के समय बहुत ज़्यादा बारिश हुई. लेकिन ज़रूरी नहीं है कि अगले साल भी मई में ऐसी बरसात देखने को मिले. मौसम में आ रहे बदलाव बेहद अप्रत्याशित हैं. इससे किसानों को ये नहीं पता चलेगा कि बीज कब बोए जाने हैं. बीज बो दिया और उसके बाद तेज़ बारिश हो गई तो फ़सल ख़राब हो जाएगी. बीज बोने के समय पर्याप्त बारिश नहीं हुई तो भी फसल को नुक़सान पहुंचेगा.”

मात्र एक परिवार वाला गाँव

चौबट्टाखाल तहसील के ही मझगाँव ग्रामसभा के भरतपुर गाँव में रह रहा आख़िरी परिवार इन रिपोर्टों को सच साबित करता हुआ मिला. गाँव के ज़्यादातर घर खंडहर बन गए हैं. कुछ घरों पर ताले तो कुछ के टूटे किवाड़ और उनके अंदर तक झाड़ियां उगी हुई दिखीं.

गाँव के खेत झाड़ियों में छिप गए थे. यशोदा देवी यहाँ अपने पति, बहू और उसके तीन छोटे बच्चों के साथ रहती हैं. दो बेटे दिल्ली और गुड़गाँव में नौकरी करते हैं. पिछले साल जब लॉकडाउन लगा तो बहू अपने बच्चों के साथ वापस लौटी हैं.वह बताती हैं, “गाँव में हमारा अकेला परिवार रह गया है. कभी शादी-ब्याह या पूजा के समय दो-चार दिनों के लिए लोग आते भी हैं. कई ने तो हमेशा के लिए ही गाँव छोड़ दिया है.”

यशोदा देवी ने अपने घर के चारों तरफ़ कई बल्ब लगाए हैं ताकि रात के समय रोशनी से गुलदार घर के नज़दीक न आए.वह कहती हैं, “तीन-तीन बघेरा (गुलदार) हमारे घर के सामने चक्कर लगाते रहते हैं. चार दिन पहले ही उसने हमारे बछड़े को मार दिया. हमें अपने छोटे बच्चों का भी डर लगा रहता है. वन विभाग वालों को बोलो तो वे कहते हैं कि अपने घर के आसपास झाड़ी काटो, सफ़ाई करो. हम कितनी झाड़ियां काटेंगे.”

खेती के बारे में पूछने पर वह बताती हैं, “जो खेती करते हैं वो सूअर ले जाता है. तीन दिन लगातार बारिश लगी थी. बिजली नहीं थी. सूअर का झुंड खेतों में घुस आया. उन्हें भगाने के लिए रात में कौन बाहर जाता. अब तो ऐसा हो गया है कि बरखा लगती है तो बरखा ही लगी रहती है, घाम पड़ता है तो घाम ही होता रहता है.”

अन्य गांवों के लोगों के मुताबिक

बुज़ुर्ग किसान लीला देवी कहती हैं, “जब बारिश चाहिए तब नहीं होती. अभी बेमौसम की बारिश हो रही है. उड़द की दाल गल गई है. मंडुवा सड़ गया. पशुओं के चारे के लिए हमने घास काटकर रखे थे, वो भी सड़ गई.”

वह बताती हैं कि मई में बुवाई के समय भी लगातार बेमौसम बारिश हुई थी. जिसका असर पौधों पर पड़ा और अब कटाई के दौरान बारिश ने रही-सही कसर पूरी कर दी.

वह कहती हैं, “कुछ मौसम के चलते खेती ख़राब हो जाती है. कुछ जानवर खा जाते हैं. अपना घर चलाना मुश्किल हो रहा है”.

वह दिखाती हैं, “पहले हमारे खेत दूर तक फैले हुए थे. हम वहाँ तक खेती करते थे. लेकिन अब हमने सब छोड़ दिया है. हमारे खेत बंजर हो गए हैं. हमारी बेटियां-बहुएं कहती हैं कि हम कैसी भी नौकरी कर लेंगे लेकिन दराती-कूटी नहीं पकड़नी.

दाल की कटाई कर रही पूनम कहती हैं कि खेती पर मौसम की मार इतनी अधिक है कि अब अपने परिवारभर भी उत्पादन नहीं होता.

पूनम बिष्ट इन्हीं खेतों में उड़द, मूंग, सोयाबीन की कटाई कर रही हैं. उसने चौबट्टाखाल डिग्री कॉलेज से बीएससी की है.

वह कहती हैं, “खेतों में काम करके कुछ फ़ायदा नहीं हो रहा है. इससे अच्छा तो नौकरी करना है.”

जलवायु परिवर्तन का असर

उत्तराखंड में जलवायु परिवर्तन के दबाव के चलते लोग खेती छोड़ रहे हैं और नौकरी के लिए मैदानी क्षेत्रों की ओर पलायन कर रहे हैं.

द एनर्जी ऐंड रिसोर्स इंस्टिट्यूट और पॉट्सडैम इंस्टिट्यूट फ़ोर क्लाइमेट इम्पैक्ट रिसर्च की इस वर्ष जारी शोध रिपोर्ट के मुताबिक़ आने वाले वर्षों में इसमें अधिक तेज़ी आएगी.

उत्तराखंड ग्राम्य विकास और पलायन आयोग ने भी राज्य में बंजर हो रहे खेत और पलायन को लेकर जारी अपनी रिपोर्टों में जलवायु परिवर्तन को एक बड़ी वजह माना है.

वर्ष 2019 में आई पलायन आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक़ उत्तराखंड की 66% आबादी ग्रामीण क्षेत्रों में रहती है. इसमें से 80% से अधिक आबादी पर्वतीय ज़िलों में हैं.

पहाड़ों में किसानों की जोत बेहद छोटी और बिखरी हुई है. यहाँ सिर्फ़ 10% खेतों में सिंचाई की सुविधा है. बाकी खेती मौसम पर निर्भर करती है.

वर्ष 2001 और 2011 के जनसंख्या आँकड़ों के मुताबिक़ राज्य के ज़्यादातर पर्वतीय ज़िलों में जनसंख्या वृद्धि दर बेहद कम रही है. इस दौरान अल्मोड़ा और पौड़ी ज़िले की आबादी में व्यक्तियों की सीधी कमी दर्ज की गई है.

ये गाँव भी खाली हो जाएगा!

भरतपुर गाँव से आगे नौलू गाँव भी पलायन की मार झेल रहा है. गाँव के ज़्यादातर परिवार शहरों में बस गए हैं.

यहाँ के किसान सर्वेश्वर प्रसाद ढौंडियाल कहते हैं, “अगले दो-तीन साल में हमारा गाँव भी भुतहा हो जाएगा. कुछ परिवार अपने छोटे बच्चों को पढ़ाने की वजह से जा रहे हैं. तो कुछ चौपट हो चुकी खेती और जंगली जानवरों के आतंक के चलते.”

क्या जलवायु परिवर्तन से बढ़ रहा है मानव-वन्यजीव संघर्ष?

वन्यजीवों के लिए कार्य कर रही संस्था डब्ल्यूडब्ल्यूएफ इंडिया में वाइल्ड लाइफ एंड हैबिटेट प्रोग्राम में डायरेक्टर डॉ. दीपांकर घोष कहते हैं, “सीधे तौर पर हम जलवायु परिवर्तन और मानव-वन्यजीव संघर्ष को जोड़ नहीं सकते. लेकिन ये स्पष्ट है कि वैश्विक तापमान बढ़ने की वजह से जंगल में आग लगने की घटनाएं बढ़ रही हैं.”

”इससे जंगल की गुणवत्ता प्रभावित हो रही है. ऐसे पेड़-पौधे जिनके फल-फूल पर जंगली जानवर निर्भर करते हैं, वो यदि जंगल की आग में ख़त्म हो जाएंगे तो वन्यजीवों को भोजन की दिक्क़त आएगी. हालांकि इस पर बहुत कम शोध हुआ है.”

देहरादून में वाइल्ड लाइफ़ इंस्टिट्यूट ऑफ़ इंडिया में वैज्ञानिक डॉ बिवाश पांडव कहते हैं कि जलवायु परिवर्तन के असर से मानव-वन्यजीव संघर्ष की घटनाएं बढ़ी हैं. वह उच्च हिमालयी क्षेत्रों में भालू के साथ बढ़ते संघर्ष का उदाहरण देते हैं.

वे कहते हैं, “भालू पहले 4-5 महीने शीत निद्रा में रहते थे. लेकिन बर्फ़बारी कम होने से शीत निद्रा का उनका समय घट रहा है. लद्दाख के द्रास और जांस्कर घाटी में हमने पाया कि भालू एक महीना भी शीतनिद्रा में नहीं जा रहा.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *