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द्वारका एवं शारदा पीठ के शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती का रविवार को निधन हो गया. वे 99 साल के थे. उन्होंने मध्य प्रदेश के नरसिंहपुर में आखिरी सांस ली. स्वरूपानंद सरस्वती को हिंदुओं का सबसे बड़ा धर्मगुरु माना जाता था. कुछ दिन पहले ही स्वरूपानंद सरस्वती ने अपना 99वां जन्मदिवस मनाया था.
द्विपीठाधीश्वर जगतगुरू शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती महाराज रविवार दोपहर 3:30 बजे नरसिंहपुर जिले के परमहंसी गंगा आश्रम झोतेश्वर में ब्रम्हलीन हो गए. यह दुखद खबर लगते ही लोगों में निराशा और मायूसी आ गई. हर वर्ग और अनेक संगठनों ने उनके ब्रम्हलीन होने पर गहरा दुख व्यक्त किया है. इसे संपूर्ण देश के लिए बड़ी क्षति बताई है.
जानकारी के अनुसार, पिछले कुछ महीनों से उनका स्वास्थ्य बिगड़ा हुआ था और उच्च स्तरीय इलाज चल रहा था. यही कारण है कि इस साल उनके जन्मदिवस (2 सितंबर) पर कोई बड़ा कार्यक्रम नहीं किया गया था. जबकि प्रतिवर्ष अनेक कार्यक्रम होते थे. इसके बाद भी पूरे देश से भक्त परमहंसी गंगा आश्रम झोतेश्वर आए. बड़ी संख्या में आए भक्तों को महाराज श्री ने कुछ देर के लिए दर्शन भी दिए थे. उन्होंने 99 वर्ष पूर्ण कर 100वे वर्ष में प्रवेश किया था.
ज्योतिष्पीठाधीश्वर और द्वारका शारदापीठाधीश्वर जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानन्द सरस्वती जी महाराज सनातन धर्म के प्रमुख थे. वहीं, देश की आजादी में उनका योगदान रहाऔर वे स्वतन्त्रता सेनानी थे. साथ ही रामसेतु रक्षक, गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित करवाने वाले तथा रामजन्मभूमि के लिए लंबा संघर्ष करने वाले, गौरक्षा आन्दोलन के प्रथम सत्याग्रही, रामराज्य परिषद् के प्रथम अध्यक्ष, पाखण्डवाद के प्रबल विरोधी रहे थे.
स्वतंत्रता संग्राम सेनानी
स्वरूपानंद सरस्वती का जन्म 2 सितंबर 1924 को मध्य प्रदेश राज्य के सिवनी जिले के ग्राम दिघोरी में श्री धनपति उपाध्याय और श्रीमती गिरिजा देवी के यहां हुआ. माता-पिता ने इनका नाम पोथीराम उपाध्याय रखा. 9 वर्ष की उम्र में उन्होंने घर छोड़ कर धर्म यात्राएं प्रारंभ कर दी थीं. इस दौरान वह काशी पहुंचे और यहां उन्होंने ब्रह्मलीन श्री स्वामी करपात्री महाराज वेद-वेदांग, शास्त्रों की शिक्षा ली. यह वह समय था जब भारत को अंग्रेजों से मुक्त करवाने की लड़ाई चल रही थी.
जेल की सजा भी काटी
जब 1942 में अंग्रेजों भारत छोड़ो का नारा लगा तो वह भी स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े और 19 साल की उम्र में वह क्रांतिकारी साधु के रूप में प्रसिद्ध हुए. इसी दौरान उन्होंने वाराणसी की जेल में 9 और मध्यप्रदेश की जेल में छह महीने की सजा भी काटी. वे करपात्री महाराज की राजनीतिक दल राम राज्य परिषद के अध्यक्ष भी थे. 1950 में वे दंडी संन्यासी बनाए गए और 1981 में शंकराचार्य की उपाधि मिली. 1950 में शारदा पीठ शंकराचार्य स्वामी ब्रह्मानन्द सरस्वती से दण्ड-सन्यास की दीक्षा ली और स्वामी स्वरूपानन्द सरस्वती नाम से पहचाने जाने लगे.