वीएस चौहान की रिपोर्ट
उत्तराखंड में अगले साल होने वाले विधानसभा चुनावों में भाजपा असम का फॉर्मूला अपना सकती है। राज्य के लिए चुनावी रणनीति में विभिन्न पहलुओं पर विचार किया जा रहा है, जिसमें एक फॉर्मूला यह भी है। यह फॉर्मूला असम में सफल रहा और पार्टी दोबारा सत्ता में आने में कामयाब भी रही है।
उत्तराखंड में अगले साल फरवरी में चुनाव होने हैं इस लिहाज से अब केवल लगभग आठ महीने का समय ही बचा है। पार्टी ने हाल में ही नेतृत्व परिवर्तन कर अपनी चुनावी रणनीति को अमलीजामा पहनाने की कोशिश की थी लेकिन नया नेतृत्व भी उसकी उम्मीदों पर खरा नहीं उतर पा रहा है। इसके अलावा कोरोना से बने हालात ने भी पार्टी की चिंता बढ़ाई हुई है। उत्तराखंड में भाजपा और कांग्रेस के बीच सीधा मुकाबला होता रहा है, हालांकि इस बार आम आदमी पार्टी की दस्तक भी महसूस हो रही है।
राज्य में मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत के नेतृत्व वाली सरकार को लेकर केंद्र में किसी तरह की नाराजगी तो नहीं है, लेकिन चुनाव के समय जिस तरह की रणनीति की जरूरत होती है उसमें दिक्कत आ सकती है। वैसे भी हाल में मुख्यमंत्री के कुछ बयानों को लेकर पार्टी असहज रही है। पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत के बयान भी असहज करने वाले रहे हैं। ऐसे में एक बार और नेतृत्व परिवर्तन करने के बजाय वह विधानसभा चुनाव में बिना किसी चेहरे के जा सकती है।
दरअसल, पार्टी ने असम में भी यही फॉर्मूला अपनाया था। वहां मुख्यमंत्री सर्बानंद सोनोवाल के रहते हुए भी उनको बतौर मुख्यमंत्री पेश नहीं किया गया था, बल्कि चुनाव मैदान में उतरे हेमंत बिस्वा सरमा को परोक्ष रूप से आगे बढ़ाया गया था और बाद में उनको ही मुख्यमंत्री बनाया गया।
किसी एक चेहरे पर दांव न लगाने के पीछे एक रणनीति यह भी मानी है कि भाजपा में मुख्यमंत्री पद के लगभग आधा दर्जन दावेदार हैं और लगभग सभी अपने-अपने क्षेत्र के मजबूत नेता हैं। ऐसे में पार्टी सामूहिक नेतृत्व के साथ आगे बढ़ सकती है। उत्तराखंड छोटा राज्य होने के बाद भी राजनीतिक रूप से काफी महत्वपूर्ण है। यहां पर भाजपा का सीधा मुकाबला कांग्रेस से है। हालांकि, आम आदमी पार्टी के कुछ क्षेत्रों में उभार पर भी नजर है, लेकिन वह शायद ही सत्ता के लिए अपनी दावेदारी पेश कर सके।