वीएस चौहान की रिपोर्ट
उत्तराखंड के चमोली में ग्लेशियर टूटने से जिस तरह से भीषण आपदा के साथ पानी का सैलाब आया इसमें जनधन की भी हानि हुई इससे पहले केदारनाथ की आपदा को भी लोग भूले नहीं हैं सोचने का विषय है कि ग्लेशियर क्यों टूट रहे हैं इसके बारे में सूत्र बताते हैं ग्लोबल वार्मिंग भी एक कारण हो सकता है
उत्तराखंड में ग्लेशियर टूटने (Glacier Burst) से भीषण सैलाब की घटना के बीच एक ख़ास तथ्य यह है कि कुछ ही महीनों पहले हिमालय क्षेत्र के ग्लेशियरों (Himalayan Glacial Lakes) में बन रही झीलों से खतरा रिसर्चरों ने भांपा था. रिसर्चरों ने कहा था कि हिमालय में कई ग्लेशियल झीलें बन रही थीं, जिनमें से 47 को बेहद खतरनाक मानकर चेतावनी दी गई थी कि ये फट सकती हैं, जिससे नेपाल, चीन और भारत (India Nepal China) में बाढ़ व सैलाब जैसे हालात हो सकते हैं. तीनों देशों में कोशी, गंडकी और करनाली नदियों के बेसिन में कुल 3624 ग्लेशियल झीलें देखी गई थीं.
ग्लेशियरों की झीलों का बढ़ना पहाड़ी आबादी और क्षेत्रों के लिए कितना बड़ा खतरा है
रिसर्चरों ने देखा था कि इन झीलों में से 1410 ऐसी थीं, जो 0.02 वर्ग किलोमीटर या उससे ज़्यादा दायरे में फैली थीं, लेकिन कहा गया था कि इनमें से भी 47 झीलों के लिए फौरन शमन कार्रवाई ज़रूरी थी. नेपाल में संयुक्त राष्ट्र के विकास कार्यक्रम और इंटिग्रेटेड माउंटेन डेवलपमेंट के अंतर्राष्ट्रीय केंद्र ICIMOD के विशेषज्ञों ने मिलकर यह रिसर्च की थी, जिसमें देखा गया कि 47 में से 25 तिब्बत, 21 नेपाल और 1 खतरनाक झील भारतीय क्षेत्र में थी
सामान्य तर्क से समझा जा सकता है कि ग्लेशियरों की झीलों का बढ़ना पहाड़ी आबादी और क्षेत्रों के लिए कितना बड़ा खतरा है. 2011 की एक स्टडी में पाया गया कि नेपाल में पिछले चार दशकों में 24 बार इन झीलों की वजह से बाढ़ आई. जनजीवन, संपत्ति, इन्फ्रास्ट्रक्चर के तौर पर करोड़ों का नुकसान इससे होता रहा है.
पहले भी कई अध्ययनों में यह कहा जा चुका है कि ग्लोबल वॉर्मिंग के चलते हिमालय क्षेत्र में जो ग्लेशियर जिस रफ्तार से पिघल रहे हैं, 2100 तक तापमान 1.5 डिग्री सेंटीग्रेड तक बढ़ जाएगा और दो तिहाई हिमालयी ग्लेशियर पिघल चुके होंगे. सीधी बात है कि ग्लेशियरों के पिघलने से झीलें बढ़ती हैं या पहले से मौजूद झीलों का दायरा फैलता है. इन्हीं ग्लेशियर झीलों में हाइड्रोस्टैटिक दबाव के चलते भयानक बाढ़ तक की स्थितियां बहुत कम समय के भीतर बन जाती हैं.
2020 की ही एक स्टडी में नासा ने पाया था कि दुनिया भर में 1990 से 2018 के बीच ग्लेशियर झीलों की संख्या 50 फीसदी तक बढ़ गई. एक चेतावनी देता फैक्ट यह है कि गंगा नदी को बनाने वाले तीन नदियों के बेसिन में ग्लेशियर झीलों का दायरा साल 2000 से 2015 के बीच 179 वर्ग किमी से बढ़कर 195 वर्ग किमी हो गया है.
कितनी खतरनाक हो सकती है यह झीलें, कैसी हैं ये खतरनाक झीलें?
जिन 47 झीलों को बेहद खतरनाक बताया गया, उनमें से 31 को रिसर्चरों ने पहली रैंक पर, 12 को दूसरी और 4 को तीसरी रैंक पर रखा ताकि इनसे पैदा होने वाले खतरे को प्राथमिकता से समझा जा सके. रिसर्चरों की रिपोर्ट की मानें तो गंगा की सहायक नदी कोशी के बेसिन में ग्लेशियर झीलों के भयानक हॉटस्पॉट बन रहे हैं. इसी बेसिन में सबसे ज़्यादा करीब 42 खतरनाक झीलें मौजूद हैं.
कोशी बेसिन में इन झीलों को दायरा 2000 से 2015 के बीच 12% फैल गया है तो गंडकी के बेसिन में 8% और करनाली के बेसिन में 1.27% का इज़ाफा हुआ. आंकड़ों को ऐसे भी समझा जा सकता है कि साल 2000 की तुलना में 2015 में करीब 50 झीलें कम हुईं लेकिन ये झीलें खत्म न होकर मर्ज हुईं और झीलों का कुल दायरा बढ़ा.
सभी देशों के विशेषज्ञों को मिलकर ही निकालना होगा हल
रिसर्चरों ने जिन खतरनाक झीलों के बारे में जाना, उनमें से 50% झीलें तिब्बत के क्षेत्र में हैं. इससे पहले चीनी रिसर्चरों ने जो स्टडी जून 2020 में की थी, उसमें तिब्बत की 654 ग्लेशियर झीलों में से 246 को खतरनाक माना था. इन झीलों की मॉनिटरिंग करते हुए इनसे खतरे को भांपने के लिए विशेषज्ञों ने देशों से मिलकर काम करने की ज़रूरत बताई.
सभी देशों के विशेषज्ञों के प्रयासों में देशों के बीच चल रहे सियासी तनाव के कारण रुकावट आती है
चीन, भारत और नेपाल के बीच ग्लेशियर झीलों को लेकर रिसर्च और मॉनिटरिंग सहयोग को बढ़ाने के ICIMOD के प्रयासों को देशों के बीच चल रहे सियासी तनावों से झटका लगता रहा है. 2007 में क्लाइमेट चेंज पर इंटरगवर्नमेंटल पैनल (IPCC) ने कहा था कि हिमालय का क्षेत्र डेटा के लिए ‘ब्लैक होल’ बन गया है, जबकि यहां ग्लोबल औसत से ज़्यादा तेज़ी से तापमान बढ़ने का असर दिख रहा है.
इस रिपोर्ट के बाद यहां के देशों ने मिलकर सहयोग बढ़ाने की कसमें खाई थीं, लेकिन यह रस्म अदायगी ही साबित हुई क्योंकि 2014 की IPCC रिपोर्ट में फिर यही बात कही गई. इन देशों पर अंतर्राष्ट्रीय दबाव भी रहा, लेकिन यह भी लगातार कारगर साबित नहीं हुआ.
IPCC हो या ICIMOD, कई रिसर्च संस्थाओं ने कई बार चेताया है और कई कोशिशें हुई हैं कि इन देशों के बीच इस भयानक खतरे से निपटने के प्रो एक्टिव प्रयासों को लेकर सहयोग बढ़े, लेकिन डेटा और सूचनाओं तक का अभाव बना हुआ है. हर बार सिर्फ उम्मीदें ही की जाती हैं कि अब सहयोग बढ़ेगा.